Siddhanta Saraswati Prakashan

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English class 6 Chapter 1 Mcq

[watupro 1]

Maths class 6 Chapter 1 Mcq

[watupro 1]

Test

अध्याय १२

अर्जुन उवाच

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥१

Hindi

‌‌अर्जुन ने कहा — आप‌के पूर्वोक्त उपदेशानुसार जो भक्तयो‌गी निष्ठायुक्त होकर निरन्तर आपके श्यामसुन्दर रूप की उपासना करते हैं तथा जो निर्विशेष अक्षर ब्रह्म की उपासना करते हैं, उन दोनों में कौन श्रेष्ठ योगवेत्ता हैं?॥१॥

English

Arjun inquired—According to your earlier explanation: who do You consider to be more perfect in Yoga, those who are steadfastly, continually engage in the worship of Your Syamsundara form, or those who worship the formless Brahman?

Word Meanings

अन्वय-अर्जुनः उवाच (अर्जुनने कहा!) एवम् (इस प्रकारसे) सततयुक्ताः (निरन्तर आपमें निष्ठायुक्त) ये भक्ताः (जो भक्तगण) त्वाम् (आपकी) पर्युपासते (उपासना करते हैं) ये च अपि (और जो) अव्यक्तम् (निर्विशेष) अक्षरम् (ब्रह्मकी) [पर्युपासते-उपासना करते हैं] तेषाम् (उन दोनोंमें) के योगवित्तमाः (कौन श्रेष्ठ योगवेत्ता हैं)।।१।।

श्रीभगवानुवाच

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥२

Hindi

श्रीभगवान ने कहा—जो लोग अपने मनको मेरे साकार रूपमें एकाग्र करते हैं, और अत्यन्त श्रद्धा पूर्वक मेरी पूजा करनेमें सदैव लगे रहते हैं। मेरे मतमें वे ही सर्वश्रेष्ठ योगी हैं।

English

The blessed Lord Said: He whose mind is fixed on My personal form, always engaged in worshiping Me with great and transcendental faith is considered by Me to be most perfect.

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥३
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥४

Hindi

लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में करके तथा सब के प्रति समभाव रखते हुए, सभी जीवों के कल्याण में रत होकर, इन्द्रियों की अनुभूति के परे सर्वव्यापी, अकल्पनीय, अपरिवर्तनीय, अचल तथा ध्रुव परम सत्य की निराकार धारणा की पूरी तरह से पूजा करते हैं, वे मुझे ही प्राप्त करते है॥३-४॥

English

But those who worship My indescribable, unmanifest, all-pervading, inconceivable, immutable, eternal, and featureless impersonal conception, while controlling their senses, maintaining equal vision in all situations, and engaging in activities for the welfare of all beings, also attain Me alone.

Word Meaning

ये – जो तु – लेकिन अक्षरम् – इन्द्रिय अनुभूति से परे अनिर्देश्यम् – अनिश्चित अव्यक्तम् – अप्रकट पर्युपासते – पूजा करने में पूर्णतया संलग्न सर्वत्र-गम् – सर्वव्यापी अचिन्त्यम् – अकल्पनीय च – भी कूटस्थम् – अपरिवर्तित अचलम् – स्थिर  ध्रुवम् – निश्चित सन्नियम्य – वश में करके इन्द्रिय-ग्रामम् – सारी इन्द्रियों को सर्वत्र – सभी स्थानों में सम-बुद्धयः – समदर्शी ते – वे प्राप्नुवन्ति – प्राप्त करते हैं माम् – मुझको एव – निश्चय ही सर्व-भूत-हिते – समस्त जीवों के कल्याण में रताः – संलग्न॥३-४॥

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥५

जिन लोगों के मन परमेश्वर के अव्यक्त, निराकार धारणा के प्रति आसक्त हैं, उनके लिए प्रगति कर पाना अत्यन्त कष्टप्रद है क्योंकि देहधारियों के लिए अव्यक्त की अनुभूति अत्यन्त दुःख पूर्वक प्राप्त होती है॥५॥

Hindi Trans ↓

For those whose minds are attached to the unmanifested, impersonal feature of the Supreme, advancement is very troublesome, for worship of the unmanifest is exceedingly difficult for embodied beings.

English Trans↓

क्लेश: – कष्ट  अधिकतर: – अत्यधिक तेषाम् – उन अव्यक्त – अव्यक्त के प्रति आसक्त – अनुरक्त चेतसाम् – मन वालों का अव्यक्ता – अव्यक्त की ओर हि – निश्चय ही गति: – प्रगति दुःखम् – दुःख के साथ देहवद्भिः – देहधारी के द्वारा अवाप्यते – प्राप्त किया जाता है॥५॥

Word Meaning↓
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥६
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि न चिरात् पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥७
जो लोग समस्त कर्म को मेरी प्राप्ति के लिए अर्पितकर, मेरे परायण होकर अनन्य भक्तियोग से मेरा ध्यान करते हुए मुझे भजते हैं, हे पार्थ! मुझ में आसक्तचित्त उन लोगों को शीघ्र ही मैं इस मृत्युरूप संसार-सागर से पार कर देता हूँ।।६-७॥

Hindi Trans ↓

But to those who dedicate all their actions unto Me, being devoted to Me and exclusively worship Me with unalloyed devotion, O Paratha, I award swift deliverance from the ocean of birth and death.

English Trans↓

empty

Word Meaning↓
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥८
श्यामसुन्दराकार मुझ में ही मन को स्थिर करो, मुझ में बुद्धि को अर्पित करो, इस प्रकार से तुम निस्सन्देह सदैव मुझ में ही वास करोगे।॥८॥
Hindi Trans ↓

Fix your mind on my Syamsundara form alone and surrender your intellect to Me. There upon, you will always live in Me. Of this, there is no doubt.

English Trans↓

empty

Word Meaning↓
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय॥९
हे धनञ्जय! और यदि तुम मुझ में चित्त को स्थिर भाव से स्थापित नहीं कर सकते हो, तो भक्तियोग के अभ्यास द्वारा मुझे पाने की चाह को उत्पन्न करो।।९।।

Hindi Trans ↓

If you are unable to fix your mind steadily on Me, O Dhananjay, then develop an eagerness to attain Me by practice of bhakti-yoga.

English Trans↓

empty

Word Meaning↓
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि॥१०
यदि तुम भक्तियोग के अभ्यास में भी असमर्थ हो, तो मेरे लिए कर्म करो। मेरी प्रीति के लिए कर्मों को करने से ही तुम पूर्ण सिद्धि लाभ करोगे।।१०॥
Hindi Trans ↓

If you cannot practice the regulations of bhakti-yoga, then just try to work for Me, because by working for Me you will certainly attain perfection.

English Trans↓

empty

Word Meaning↓
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्॥११
यदि तुम मेरी प्रीति के लिए कर्म करने में भी असमर्थ हो, तो अपने समस्त कर्मों के फलों को मुझे अर्पण करते हुए, संयत चित्त से समस्त कर्मो के फलों का त्याग करो।।११।।

Hindi Trans ↓

If, however, you are unable to work for me in devotion, then by offering to Me, renounce the fruits of your actions and be situated in the self.

English Trans↓

empty

Word Meaning↓
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥१२
क्योंकि, अभ्यास से श्रेष्ठ है-ज्ञान, ज्ञान से मेरा स्मरण रूप ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान  से कर्म फल का त्याग होता है तथा त्याग के बाद शान्ति प्राप्त होती है।।१२।।

Hindi Trans ↓

Better than mechanical practice is knowledge; better than knowledge is My remembrance and meditation upon Me. Such meditation leads to renunciation of the fruits of actions, for peace immediately follows such renunciation.

English Trans↓

empty

Word Meaning↓
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी॥१३
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥१४
जो सभी भूतों में द्वेष-भाव से रहित, सब का मित्र, दयालु, ममता से रहित, मिथ्या अहङ्कार से रहित, सुख-दुःख में समभाव रहता है, क्षमाशील, सर्वदा संतुष्ट, आत्मसंयमी, निश्चय के साथ  मुझ में मन और बुद्धि को स्थिर कर, भक्ति करने में लगा रहता है ऐसा मेरा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।।१३-१४।।
Hindi Trans ↓

My devoted, who is non-envious, compassionate and friendly toward all living beings, free from possessiveness and false ego, equipoised to happiness and distress, forgiving, always satisfied, self-controlled, firm in conviction, and dedicated to Me in mind and intellect, engaged in devotional service—is very dear to Me.

English Trans↓

empty

Word Meaning↓
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥१५
जिससे किसी को कष्ट नहीं पहुँचता तथा जो किसी के द्वारा विचलित नहीं होता एवं जो सुख-दुख, भय और चिन्ता से मुक्त है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।।१५।।

Hindi Trans ↓

He who neither disturbs anyone nor is himself disturbed by others, and who is free from mundane pleasure, pain, fear and anxiety, is certainly dear to Me

English Trans↓

empty

Word Meaning↓
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥१६
व्यवहारिक कार्यों में आशारहित, पवित्र, निपुण, अनासक्त, चिंतारहित एवं भक्ति-प्रतिकूल समस्त  चेष्टाओं से रहित जो मेरा भक्त है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।।१६॥

Hindi Trans ↓

A devotee who is not dependent on the ordinary course of activities, who is pure, expert, detached, free from all pains, and free from all endeavors that are unfavorable to bhakti, is very dear to Me.

English Trans↓

empty

Word Meaning↓
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान् यः स मे प्रियः॥१७

जो न  हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न आकांक्षा करता है, जो पाप तथा पुण्य-दोनों का परित्याग करने वाला है और जो मेरे प्रति भक्तिमान है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है॥१७॥

Hindi Trans ↓

One who neither delights nor hates, neither laments nor desires, who renounces both pious and impious activities, and is full of devotion to Me is indeed very dear to Me.

English Trans↓

empty

Word Meaning↓
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥१८
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान् मे प्रियो नरः॥१९
जो भक्तिमान मनुष्य शत्रु-मित्र, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी, सुख-दुःखमें समभाव है, जिसकी वाणी संयत है; जो कुछ प्राप्त होता है, उसी में सन्तुष्ट रहता है; गृहासक्ति से रहित तथा स्थिरबुद्धि वाला है; वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।।१८-१९॥

Hindi Trans ↓

One who is equal to friends and enemies, equipoised in honor and dishonor, heat and cold, joy and anguish, fame, and infamy, free from adverse association, always silent and satisfied with anything, detached to the place of residence, fixed in knowledge and engaged in My devotional service, is very dear to Me.

English Trans↓

empty

Word Meaning↓
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥२०
जो ऊपर कथित इस धर्मरूप अमृतकी उपासना करते हैं, वे सभी श्रद्धावान मेरे परायण भक्तगण मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।।२०।।
Hindi Trans ↓

Those, who follows this nectarian path of devotional service as described herein, and completely engage themself with faith, making Me the supreme goal, are exceedingly dear to Me .

English Trans↓

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Word Meaning↓
इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः।

श्रीमद्भगवद्गीता – Chapter 16

श्रीमद्भगवद्गीता
Chapter 11
Verses

1
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5
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अध्याय १६

श्रीभगवानुवाच

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥१

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।

दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥२

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥३

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।

अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्॥४

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।

मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥५

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च।

दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥६

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥७

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।

अपरस्परसम्भूतं किमन्यत् कामहेतुकम्॥८

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।

प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥९

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।

मोहाद्गृहीत्वाऽसद्ग्राहान् प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥१०

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥११

आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।

ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्॥१२

इदमद्य मया लब्धमिदं प्राप्स्ये मनोरथम्।

इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥१३

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान् सुखी॥१४

आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥१५

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।

प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥१६

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।

यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥१७

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।

मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥१८

तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान्।

क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥१९

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।

मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥२०

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥२१

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।

आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥२२

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥२३

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥२४

 

इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्यायः।

 

श्रीमद्भगवद्गीता – Chapter 14

अध्याय १४

श्रीभगवानुवाच

परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।

यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः॥१

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।

सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥२

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।

सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥३

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।

तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥४

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।

निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्॥५

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम्।

सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ॥६

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।

तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्॥७

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।

प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत॥८

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।

ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत॥९

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।

रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा॥१०

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् प्रकाश उपजायते।

ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत॥११

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।

रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ॥१२

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।

तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन॥१३

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।

तदोत्तमविदां लोकानमलान् प्रतिपद्यते॥१४

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।

तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते॥१५

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।

रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्॥१६

सत्त्वात् सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।

प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च॥१७

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।

जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥१८

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टाऽनुपश्यति।

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥१९

गुणानेतानतीत्य त्रीन् देही देहसमुद्भवान्।

जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥२०

अर्जुन उवाच

कैर्लिङ्गैस्त्रीन् गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।

किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन् गुणानतिवर्तते॥२१

श्रीभगवानुवाच

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।

न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति॥२२

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।

गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते॥२३

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।

तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥२४

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।

सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते॥२५

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।

स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते॥२६

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च।

शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥२७

इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः।

 

Bhagavad Gita – All Chapers

Chapter 16

Chapter 14

Chapter 12

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श्रीमद्भगवद्गीता – Chapter 12

अध्याय १२

अर्जुन उवाच

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥१


‌‌अर्जुन ने कहा — आप‌के पूर्वोक्त उपदेशानुसार जो भक्तयो‌गी निष्ठायुक्त होकर निरन्तर आपके श्यामसुन्दर रूप की उपासना करते हैं तथा जो निर्विशेष अक्षर ब्रह्म की उपासना करते हैं, उन दोनों में कौन श्रेष्ठ योगवेत्ता हैं?॥१॥

Hindi Trans↓

Arjun inquired—According to your earlier explanation: who do You consider to be more perfect in Yoga, those who are steadfastly, continually engage in the worship of Your Syamsundara form, or those who worship the formless Brahman?

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अन्वय-अर्जुनः उवाच (अर्जुनने कहा!) एवम् (इस प्रकारसे) सततयुक्ताः (निरन्तर आपमें निष्ठायुक्त) ये भक्ताः (जो भक्तगण) त्वाम् (आपकी) पर्युपासते (उपासना करते हैं) ये च अपि (और जो) अव्यक्तम् (निर्विशेष) अक्षरम् (ब्रह्मकी) [पर्युपासते-उपासना करते हैं] तेषाम् (उन दोनोंमें) के योगवित्तमाः (कौन श्रेष्ठ योगवेत्ता हैं)।।१।।

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श्रीभगवानुवाच

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥२

श्रीभगवान ने कहा—जो लोग अपने मनको मेरे साकार रूपमें एकाग्र करते हैं, और अत्यन्त श्रद्धा पूर्वक मेरी पूजा करनेमें सदैव लगे रहते हैं। मेरे मतमें वे ही सर्वश्रेष्ठ योगी हैं।
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The blessed Lord Said: He whose mind is fixed on My personal form, always engaged in worshiping Me with great and transcendental faith is considered by Me to be most perfect.

English Trans↓
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥३
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥४
लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में करके तथा सब के प्रति समभाव रखते हुए, सभी जीवों के कल्याण में रत होकर, इन्द्रियों की अनुभूति के परे सर्वव्यापी, अकल्पनीय, अपरिवर्तनीय, अचल तथा ध्रुव परम सत्य की निराकार धारणा की पूरी तरह से पूजा करते हैं, वे मुझे ही प्राप्त करते है॥३-४॥
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But those who worship My indescribable, unmanifest, all-pervading, inconceivable, immutable, eternal, and featureless impersonal conception, while controlling their senses, maintaining equal vision in all situations, and engaging in activities for the welfare of all beings, also attain Me alone.

English Trans↓

ये – जो तु – लेकिन अक्षरम् – इन्द्रिय अनुभूति से परे अनिर्देश्यम् – अनिश्चित अव्यक्तम् – अप्रकट पर्युपासते – पूजा करने में पूर्णतया संलग्न सर्वत्र-गम् – सर्वव्यापी अचिन्त्यम् – अकल्पनीय च – भी कूटस्थम् – अपरिवर्तित अचलम् – स्थिर  ध्रुवम् – निश्चित सन्नियम्य – वश में करके इन्द्रिय-ग्रामम् – सारी इन्द्रियों को सर्वत्र – सभी स्थानों में सम-बुद्धयः – समदर्शी ते – वे प्राप्नुवन्ति – प्राप्त करते हैं माम् – मुझको एव – निश्चय ही सर्व-भूत-हिते – समस्त जीवों के कल्याण में रताः – संलग्न॥३-४॥

Word Meaning↓
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥५

जिन लोगों के मन परमेश्वर के अव्यक्त, निराकार धारणा के प्रति आसक्त हैं, उनके लिए प्रगति कर पाना अत्यन्त कष्टप्रद है क्योंकि देहधारियों के लिए अव्यक्त की अनुभूति अत्यन्त दुःख पूर्वक प्राप्त होती है॥५॥

Hindi Trans ↓

For those whose minds are attached to the unmanifested, impersonal feature of the Supreme, advancement is very troublesome, for worship of the unmanifest is exceedingly difficult for embodied beings.

English Trans↓

क्लेश: – कष्ट  अधिकतर: – अत्यधिक तेषाम् – उन अव्यक्त – अव्यक्त के प्रति आसक्त – अनुरक्त चेतसाम् – मन वालों का अव्यक्ता – अव्यक्त की ओर हि – निश्चय ही गति: – प्रगति दुःखम् – दुःख के साथ देहवद्भिः – देहधारी के द्वारा अवाप्यते – प्राप्त किया जाता है॥५॥

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ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥६
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि न चिरात् पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥७
जो लोग समस्त कर्म को मेरी प्राप्ति के लिए अर्पितकर, मेरे परायण होकर अनन्य भक्तियोग से मेरा ध्यान करते हुए मुझे भजते हैं, हे पार्थ! मुझ में आसक्तचित्त उन लोगों को शीघ्र ही मैं इस मृत्युरूप संसार-सागर से पार कर देता हूँ।।६-७॥

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But to those who dedicate all their actions unto Me, being devoted to Me and exclusively worship Me with unalloyed devotion, O Paratha, I award swift deliverance from the ocean of birth and death.

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मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥८
श्यामसुन्दराकार मुझ में ही मन को स्थिर करो, मुझ में बुद्धि को अर्पित करो, इस प्रकार से तुम निस्सन्देह सदैव मुझ में ही वास करोगे।॥८॥
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Fix your mind on my Syamsundara form alone and surrender your intellect to Me. There upon, you will always live in Me. Of this, there is no doubt.

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अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय॥९
हे धनञ्जय! और यदि तुम मुझ में चित्त को स्थिर भाव से स्थापित नहीं कर सकते हो, तो भक्तियोग के अभ्यास द्वारा मुझे पाने की चाह को उत्पन्न करो।।९।।

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If you are unable to fix your mind steadily on Me, O Dhananjay, then develop an eagerness to attain Me by practice of bhakti-yoga.

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अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि॥१०
यदि तुम भक्तियोग के अभ्यास में भी असमर्थ हो, तो मेरे लिए कर्म करो। मेरी प्रीति के लिए कर्मों को करने से ही तुम पूर्ण सिद्धि लाभ करोगे।।१०॥
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If you cannot practice the regulations of bhakti-yoga, then just try to work for Me, because by working for Me you will certainly attain perfection.

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अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्॥११
यदि तुम मेरी प्रीति के लिए कर्म करने में भी असमर्थ हो, तो अपने समस्त कर्मों के फलों को मुझे अर्पण करते हुए, संयत चित्त से समस्त कर्मो के फलों का त्याग करो।।११।।

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If, however, you are unable to work for me in devotion, then by offering to Me, renounce the fruits of your actions and be situated in the self.

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श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥१२
क्योंकि, अभ्यास से श्रेष्ठ है-ज्ञान, ज्ञान से मेरा स्मरण रूप ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान  से कर्म फल का त्याग होता है तथा त्याग के बाद शान्ति प्राप्त होती है।।१२।।

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Better than mechanical practice is knowledge; better than knowledge is My remembrance and meditation upon Me. Such meditation leads to renunciation of the fruits of actions, for peace immediately follows such renunciation.

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अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी॥१३
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥१४
जो सभी भूतों में द्वेष-भाव से रहित, सब का मित्र, दयालु, ममता से रहित, मिथ्या अहङ्कार से रहित, सुख-दुःख में समभाव रहता है, क्षमाशील, सर्वदा संतुष्ट, आत्मसंयमी, निश्चय के साथ  मुझ में मन और बुद्धि को स्थिर कर, भक्ति करने में लगा रहता है ऐसा मेरा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।।१३-१४।।
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My devoted, who is non-envious, compassionate and friendly toward all living beings, free from possessiveness and false ego, equipoised to happiness and distress, forgiving, always satisfied, self-controlled, firm in conviction, and dedicated to Me in mind and intellect, engaged in devotional service—is very dear to Me.

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यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥१५
जिससे किसी को कष्ट नहीं पहुँचता तथा जो किसी के द्वारा विचलित नहीं होता एवं जो सुख-दुख, भय और चिन्ता से मुक्त है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।।१५।।

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He who neither disturbs anyone nor is himself disturbed by others, and who is free from mundane pleasure, pain, fear and anxiety, is certainly dear to Me

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अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥१६
व्यवहारिक कार्यों में आशारहित, पवित्र, निपुण, अनासक्त, चिंतारहित एवं भक्ति-प्रतिकूल समस्त  चेष्टाओं से रहित जो मेरा भक्त है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।।१६॥

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A devotee who is not dependent on the ordinary course of activities, who is pure, expert, detached, free from all pains, and free from all endeavors that are unfavorable to bhakti, is very dear to Me.

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यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान् यः स मे प्रियः॥१७

जो न  हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न आकांक्षा करता है, जो पाप तथा पुण्य-दोनों का परित्याग करने वाला है और जो मेरे प्रति भक्तिमान है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है॥१७॥

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One who neither delights nor hates, neither laments nor desires, who renounces both pious and impious activities, and is full of devotion to Me is indeed very dear to Me.

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समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥१८
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान् मे प्रियो नरः॥१९
जो भक्तिमान मनुष्य शत्रु-मित्र, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी, सुख-दुःखमें समभाव है, जिसकी वाणी संयत है; जो कुछ प्राप्त होता है, उसी में सन्तुष्ट रहता है; गृहासक्ति से रहित तथा स्थिरबुद्धि वाला है; वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।।१८-१९॥

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One who is equal to friends and enemies, equipoised in honor and dishonor, heat and cold, joy and anguish, fame, and infamy, free from adverse association, always silent and satisfied with anything, detached to the place of residence, fixed in knowledge and engaged in My devotional service, is very dear to Me.

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ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥२०
जो ऊपर कथित इस धर्मरूप अमृतकी उपासना करते हैं, वे सभी श्रद्धावान मेरे परायण भक्तगण मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।।२०।।
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Those, who follows this nectarian path of devotional service as described herein, and completely engage themself with faith, making Me the supreme goal, are exceedingly dear to Me .

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इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः।

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हमारा चिन्तन

मानवमात्र समाजकी इकाई है। अतः समग्र समाजके उत्थानके लिए मानवमात्रका सर्वाङ्गीन विकास आवश्यक है। शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक उत्कृष्टताके द्वारा मानवमात्रके सर्वाङ्गीन विकाससे सुन्दर और स्वस्थ समाजके निर्माणका प्रयत्न करना हमारा मुख्य लक्ष्य है।

हमारा ध्येय

शिक्षाकेन्द्रका स्थापन, अल्प मूल्य पर सुन्दर साहित्यका प्रकाशन और वितरण, योग्य मार्गदर्शकोंका निर्माण, स्वस्थ्य जीवनकी कलाका शिक्षण, स्वास्थ्य और कृषिसे सम्बन्धित परामर्श केन्द्रका स्थापन, बालविकास-केन्द्रका स्थापन।

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Each human is a building unit of human society. Therefore, development of the entire human race essentially depends on the complete development of each of it’s building block i.e. every human being. By all round development of every human being, based on physical, emotional and spiritual fitness, building a prosperous healthy human society is our primary goal.

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